चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया पर जूता फेंकने और एडीजीपी वाई. पूरन सिंह आत्महत्या के मामलों को राजनीतिक मुद्दे की तरह नहीं देखकर, देश की एक बड़ी आबादी के भविष्य से जुड़े अति संवेदनशील सामाजिक मामले की तरह देखा जाना चाहिए।
यह सिर्फ़ दो घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज में अब भी जड़ जमाए बैठे जातिगत अहंकार और सामाजिक अन्याय का आईना हैं, जिसके बारे में माना जाता था कि वह उच्च शिक्षा और बड़े पद से मिट जाती है।
न्याय करने में कथित कोताही और आनाकानी दलित-पिछड़े वर्ग के मान-सम्मान को गहरी ठेस पहुँचा रही है। वे भले ही सार्वजनिक रूप से कुछ न कह रहे हों, लेकिन भीतर से बेहद आहत हैं और आज़ादी के 78 साल बाद, वे एक बार फिर वही पीड़ा महसूस कर रहे हैं, जिससे वे सोचते थे कि संविधान और समानता के अधिकारों ने उन्हें बाहर निकाल दिया है।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि इन दोनों मामलों से पूरे देश के पिछड़े और वंचित वर्गों का वह भरोसा हिल सकता है कि मेहनत और शिक्षा से जातिगत भेदभाव व शोषण की दीवारें टूट जाती हैं। अगर इतने उच्च पदों पर पहुँचने के बावजूद जातिगत भेदभाव खत्म नहीं होगा, तो गरीब के पास पढ़ाई करके बड़ा व्यक्ति बनने के लिए एक कारण कम हो जाएगा।
सरकार को यह समझना चाहिए कि देश का गरीब यह सब ध्यान से देख रहा है। समय की नज़ाकत यह है कि न्याय होना भी चाहिए और होते हुए दिखना भी चाहिए।
चीफ जस्टिस पर जूता फेंकने और एडीजीपी वाई. पूरन सिंह की आत्महत्या: राजनीतिक नहीं, सामाजिक चेतावनी के गंभीर संकेत
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